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आ यं नरः॑ सु॒दान॑वो ददा॒शुषे॑ दि॒वः कोश॒मचु॑च्यवुः। वि प॒र्जन्यं॑ सृजन्ति॒ रोद॑सी॒ अनु॒ धन्व॑ना यन्ति वृ॒ष्टयः॑ ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā yaṁ naraḥ sudānavo dadāśuṣe divaḥ kośam acucyavuḥ | vi parjanyaṁ sṛjanti rodasī anu dhanvanā yanti vṛṣṭayaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। यम्। नरः॑। सु॒ऽदान॑वः। द॒दा॒शुषे॑। दि॒वः। कोश॑म्। अचु॑च्यवुः। वि। प॒र्जन्य॑म्। सृ॒जन्ति॒। रोद॑सी॒ इति॑। अनु॑। धन्व॑ना। य॒न्ति॒। वृ॒ष्टयः॑ ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:53» मन्त्र:6 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:12» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (सुदानवः) उत्तमविद्या आदि श्रेष्ठ गुणों के दान से युक्त (दिवः) कामना करते हुए (नरः) नायक मनुष्य (ददाशुषे) देनेवाले के लिये (यम्) जिस (कोशम्) मेघ को (आ) चारों ओर से (अचुच्युवुः) वर्षावें और (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी को (पर्जन्यम्) मेघ को (वि, सृजन्ति) विशेषतया छोड़ते हैं उसके (अनु) अनुकूल (धन्वना) अन्तरिक्ष से (वृष्टयः) वर्षायें (यन्ति) प्राप्त होती हैं, वैसे आप लोग भी आचरण करो ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। वे ही मनुष्य उत्तम दाता हैं, जो यज्ञ, जङ्गलों की रक्षा और जलाशयों के निर्म्माण से बहुत वर्षाओं को कराते हैं ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्याः ! सुदानवो दिवो नरो ददाशुषे यं कोशमाऽचुच्यवू रोदसी पर्जन्यं वि सृजन्ति तमनु धन्वना वृष्टयो यन्ति तथा यूयमप्याचरत ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (यम्) (नरः) नेतारो मनुष्याः (सुदानवः) उत्तमविद्यादिशुभगुणदानाः (ददाशुषे) दात्रे (दिवः) कामयमानाः (कोशम्)। मेघम्। कोश इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (अचुच्यवुः) च्यावयेयुः (वि) (पर्जन्यम्) मेघम् (सृजन्ति) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अनु) (धन्वना) (यन्ति) (वृष्टयः) वर्षाः ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। त एव मनुष्या उत्तमा दातारो ये यज्ञेन जङ्गलरक्षणेन जलाशयनिर्माणेन पुष्कला वर्षाः कारयन्ति ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. तीच माणसे उत्तम दाते असतात जी यज्ञाद्वारे जंगलाचे रक्षण करतात व जलाशय निर्माण करून पुष्कळ वृष्टी करवितात. ॥ ६ ॥